Wednesday, June 24, 2015

STING OPERATION स्टिंग ऑपरेशन

STING OPERATION  स्टिंग ऑपरेशन यानि घात लगाकर सुबूत जुटाना- 
                                        - डाॅ सचिन बत्रा

 स्टिंग ऑपरेशन को घात पत्रकारिता या डंक पत्रकारिता भी कहा गया है।  दरअसल घात पत्रकारिता खोजी पत्रकारिता की कोख से ही निकली है लेकिन इसमें दस्तावेज से अधिक दृश्य या फोटो का विशेष महत्व होता है क्योंकि घात पत्रकारिता में दृश्यों को सुबूत की तरह इस्तेमाल किया जाता है। टीवी माध्यमों में स्टिंग ऑपरेशन का प्रचलन अधिक है क्योंकि यह सनसनी पैदा करती है। लेकिन आज के दौर में किसी गड़बड़ी का छिपकर फिल्मांकन करना या पहचान छिपाकर यानि डेकाॅय बनकर छल से किसी कुकृत्य, गैरकानूनी काम, मिलावट, साजिश, लापरवाही, अपराध, जालसाजी या रिश्वतखोरी को प्रमुखता से दिखाया जाता है क्योंकि उस सनसनी से दर्शक उत्तेजित होते हैं। हमारे देश में इंडियन एक्सप्रेस के अश्विनी सरीन, वरिष्ठ पत्रकार व सांसद रहे अरूण शौरी, तहलका के वरिष्ठ पत्रकार अनिरूद्ध बहल व तरूण तेजपाल, द हिन्दू के संपादक पी साईनाथ, आजतक न्यूज़ चैनल के दीपक शर्मा व धीरेंद्र पुंडीर जैसे कई जाने माने खोजी पत्रकारों ने समाचार संकलन के क्षेत्र में गहन शोध की परंपरा को आगे बढ़ाया है। 

दरअसल स्टिंग ऑपरेशन का सीधा संबंध गोपनीयता से है, इसमें संवाददाता अपनी पहचान छिपाकर या किसी अन्य व्यक्ति की मध्यस्थता से गलत काम करने वालों की गोपनीय कारगुज़़ारियों को अपनी नियंत्रित स्थितियों में प्रेरित करता है और उसे कैमरे में कैद किया जाता है। इसमें संवाददाता को धन का पीछा करना, निगरानी, औचक निरीक्षण और बहरूपिया बनकर पूछताछ करने जैसी कलाओं का अच्छा ज्ञान हो चाहिए। स्टिंग ऑपरेशन आसान काम नहीं है क्योंकि इसके लिए सही तरीका, समय और स्थितियों को बुनना पड़ता है। यही नहीं स्टिंग के लिए आपके पास पर्याप्त संसाधन होने भी जरूरी हैं। इसमें मोबाइल, स्पाई कैमरा, वाॅयस रिकार्डर और कई बार मिनी सीसीटीवी कैमरे का भी इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना जरूरी है कि जब किसी स्टिंग के विरोध में कोई अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो संवाददाता को जवाब भी देना पड़ सकता है कि जो स्टिंग किया गया है वह जनहित से कैसे संबध रखता है। यही नहीं, मांगे जाने पर संवाददाता को फाॅरेंसिक जांच के लिए उन दृश्यों की मूल प्रति भी देनी पड़ सकती है। जिसमें वीडियो के प्रामाणिक होने की जांच की जाती है और प्रसारण में अनावश्यक संपादन पाए जाने पर कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। अक्सर निजता के अधिकार का उल्लंघन, शासकीय दस्तावेजों की गोपनीयता के कानून और किसी की मानहानि जैसे सवालों के जवाब पाने की बाद ही स्टिंग ऑपरेशन किया जाना चाहिए। लिहाजा स्टिंग ऑपरेशन के लिए अतिरिक्त सावधानी और समझदारी की आवश्यकता होती है। 

                                     स्टिंग ऑपरेशन की तैयारी-
1. विषय का निर्धारण- स्टिंग ऑपरेशन से पहले एक संवाददाता को यह तय करना पड़ता है कि उसे सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर स्टिंग करना चाहिए या नहीं। उसे यह सुनिश्चित करना होता है कि जो विषय तय किया जा रहा है वह पूरी तरह उपयुक्त और कानूनी पेचीदगियों से परे है या नहीं। मतलब यह है कि एक ऐसा विषय जिसमें संवाददाता को ही लग रहा हो कि वह गैरकानूनी है या अदालती हस्तक्षेप में वह समाचार कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा तो उसे उस ऑपरेशन में आगे बढ़ने से पहले ही बचाव के सभी पहलुओं पर काम कर लेना चाहिए। जैसे एक बार एक अपरिचित सूत्र ने संवाददाता से कहा कि वह हिरण शिकार के स्टिंग ऑपरेशन में मदद करना चाहता है। इसपर संवाददाता ने उससे कई सवाल पूछे कि कैसे पता चलेगा कि शिकार कब हो रहा है और अगर मौके पर हमें देख लिया तो शिकारी बदले की कार्यवाही कर सकते हैं। इसपर सूत्र ने बताया कि शिकार करने वाले जान पहचान के लोग हैं, वे अपने चेहरे पर नकाब ओढ़कर हिरण का शिकार करेंगे और आपको कोई खतरा नहीं होगा। यह जानने पर संवाददाता को सूत्र की बात अनैतिक लगी। उसके मस्तिष्क में सवाल यह था कि क्या सिर्फ पत्रकारिता का दमखम दिखाने के लिए हिरण को मारने देना चाहिए और दूसरा सवाल यह कि ऐसे स्टिंग ऑपरेशन के प्रसारण के बाद पूछा जा सकता है कि अगर संवाददाता वहां मौजूद था तो उसने एक जागरूक नागरिक होने का दायित्व निर्वाह करते हुए संबंधित विभाग को शिकार की जानकारी क्यों नहीं दी। इन दोनों सवालों में पत्रकारिता की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचने का आंकलन करने के बाद संवाददाता ने उस सूत्र को चेतावनी दी कि अगर उसने किसी अन्य पत्रकार को ऐसा प्रलोभन दिया तो वह उसे गिरफ्तार करवा देगा। लेकिन उस सूत्र ने किसी अन्य संवाददाता से संपर्क कर हिरण शिकार का स्टिंग करवा दिया। जिसपर वन विभाग और अदालत ने संज्ञान लेते हुए उक्त संवाददाता पर कानूनी कार्रवाई की। कुल मिलाकर विषय का निर्धारण बहुत मंथन के बाद किया जाना चाहिए।

2. रैकी यानि आंखों देखी- सबसे पहले आपको तय किए गए विषय, व्यक्ति और उस जगह के बारे में सभी सूचनाएं एकत्र करनी होती है। इसके लिए मौके पर जाकर सभी बातों को समझना पड़ता है यानि रैकी करनी पड़ती है। जैसे संदेह के दायरे में रखे गए व्यक्ति के आने-जाने का समय, उसके नज़दीकी लोग, उसकी आदतें या व्यवहार, काम को करने की उसकी गोपनीय तकनीक, उसके साथ शामिल लोगों की संख्या और लोग उस तक कैसे पहुंचते हैं। कुल मिलाकर रैकी के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया जाता है कि अगर कुछ गड़बड़ है तो कहां और कैसे है। इसमें अपनी पहचान छिपाकर यह भी पता लगाना होता है कि गड़बड़ी की मूल वजह तक पहुंचने के लिए सबसे सही माध्यम क्या हो सकता है। जैसे कि कई बार कार्यालयों में चपरासी, जूनियर अफसर और कई बार बाहर के कुछ लोग ऐसे काम में मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। ऐसे में आप किसी चपरासी को टिप देकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपको किसी विश्वस्त सूत्र ने प्रामाणिक जानकारी दी हो, तब भी रैकी बहुत जरूरी है। गौरतलब है कि रैकी आपको स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए आवश्यक सावधानियां अपनाने, रणनीति बनाने और अपने लक्ष्य तक आसानी से पहुंच बनाने की सही दिशा देती है। यही नहीं रैकी को एक प्रकार का रिसर्च या शोध कहा जाता है जिसमें एक समाचार बनाने के लिए जरूरी सभी छहः कक्कार यानि सभी आवश्यक सवालों के जवाब प्राप्त होते है। जैसे कौन करता है, कब करता है, किसके साथ करता है, कैसे करता है, कहां करता है और क्यों करता है। लेकिन कभी-कभी रैकी के दौरान किसी अनियमितता को समझना आसान काम नहीं होता। जैसे एक बार संवाददाता को सूचना मिली कि लम्बी दूरी की रेल के जनरल डिब्बे में एक गैंग सीटों पर कब्ज़ा जमा लेती है और सीट के बदले प्रति यात्री 50 से 100 रूपए वसूल करके अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं। इसकी रैकी करने के बावजूद संवाददाता को कोई खास जानकारी नहीं मिली। इस प्रक्रिया को दूसरे दिन भी दोहराया गया मगर गैंग के लोगों की पहचान बहुत मुश्किल थी। ऐसे में संवाददाता ने तय किया कि रेलवे प्लेटफार्म वेंडर्स से टोह लेते हैं लेकिन वेंडर भी पहचान बताने से मुकर गए। इसके बाद संवाददाता ने एक वेंडर के ठेले पर छिपाकर रखी गई सिगरेट के पैकेट व तंबाखू के पाउच देखे। इसपर संवाददाता ने वेंडर को प्रतिबंधित उत्पाद रखने पर धमकाया और रेल की सीट पर कब्ज़ा करने वाले गैंग के लोगों के बारे में जानकारी मांगी। इस प्रकार एक सटीक सूचना प्राप्त हुई और स्टिंग ऑपरेशन का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

3. माॅक ड्रिल यानि अभ्यास जांच- कई बार स्टिंग करने से पहले मौके पर अभ्यास करना पड़ता है। अपने साथ हिडन या स्पाई यानि छिपा कैमरा लेकर मौके पर उसका इस्तेमाल किया जाता है और लौटकर उसके नतीजे देखे जाते हैं। इसमें इस बात की जांच हो जाती है कि कैमरे का प्रदर्शन कैसा है, वहां की रोशनी में दृश्य आवश्यकता के अनुरूप गुणवत्तापूर्ण हैं या नहीं और जिस प्रकार की ध्वनि या आवाज़ रिकार्ड हो रही है उसमें कहीं ईको यानि गूंज की समस्या तो नहीं आ रही। कुल मिलाकर मौके पर अभ्यास जांच में कैमरे में रिकार्ड दृश्य और ध्वनि में कुछ कमी पाए जाने पर आप स्टिंग ऑपरेशन के लिए किसी एकांत जगह के चुनाव की रणनीति बना सकते हैं। लेकिन अगर अभ्यास जांच यानि माॅक ड्रिल किए बिना आप स्टिंग कर लेते हैं तो दूसरी बार स्टिंग करना जटिल काम हो जाता है। इस बात की संभावना बहुत कम रह जाती है कि आप उसी प्रक्रिया को किसी दूसरे तरीके से दोहरा सकें। अभ्यास जांच से आपको अपने ऑपरेशन की ठोस और सफल रणनीति बनाने में मदद मिलती है। मसलन कई विभागों में आने जाने वालों की तलाशी ली जाती है ऐसे में आपका छिपा कैमरा पकड़ा जा सकता है। ऐसी स्थिति में आप विभाग के किसी कर्मचारी की मदद लेकर या वहां प्रवेश करने के किसी दूसरे मार्ग का पता लगाकर ऑपरेशन कर सकते हैं या तलाशी से बचने का कोई हल निकाल सकते हैं। एक बार संवाददाता के सामने ऐसी ही स्थिति पेश आई लिहाज़ा स्टिंग ऑपरेशन के लिए सर्दियों का इंतज़ार करना पड़ा ताकि स्पाई कैमरा छिपाने में आसानी हो और तलाशी में बचाव हो सके। इसी प्रकार एक बार संवाददाता को अभ्यास जांच में यह पता चला कि एक अधिकारी रिश्वत लेनदेन की बात करते समय आने वाले का मोबाइल अपने एक कर्मचारी के पास रखवा देता है। अगर जान पहचान वाला हो तो मोबाइल बंद कर टेबल पर रखने को कहता है। इस अभ्यास जांच के लिए संवाददाता किसी सूत्र के साथ पहुंचकर मौके पर पूरी प्रक्रिया को देख आया था इसीलिए उसने तय कि स्टिंग करते समय वह अपने साथ मोबाइल रखने के बजाए अपने साथी को उस अफसर के कमरे के बाहर मोबाइल देकर रखेगा। यानि पूर्व तैयारी में माॅक ड्रिल बहुत सहायक होती है। इसी प्रकार यदि स्टिल कैमरे से ही स्टिंग करना हो तो मोबाइल के सीक्वेंस मोड को मौके पर उपयोग करके यह देख लेना चाहिए कि खींचे गए फोटो साफ आ रहे हैं या नहीं। अगर फोटो संतोषजनक नहीं है तो ज्यादा मेगापिक्सल वाले मोबाइल का उपयोग कर फोटो परिणाम की जांच करनी चाहिए। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मोबाइल में फोटो खींचने पर शटर के क्लिक की ध्वनि बंद हो। अगर आवाज़ चालू रह गई तो सबको पता चल जाएगा कि आप फोटो खींच रहे हैं ऐसे में आपकी पहचान उजागर हो जाएगी। जिससे आप वहां दोबारा जाकर स्टिंग ऑपरेशन नहीं कर पाएंगे। 

4. मोबाइल व कैमरे की जांच- इसमें मौके पर अपने मोबाइल का नेटवर्क भी जांचा जाता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर किसी से संपर्क किया जा सके। एक बार संवाददाता ने इसी प्रकार स्टिंग करने की तैयारी की और अभ्यास जांच में यह पाया कि उसका मोबाइल नेटवर्क कमज़ोर था। ऐसे में उसने दूसरे नेटवर्क के मोबाइल फोन को परखा जिसका नेटवर्क वहां सबसे अधिक उपयुक्त था। इसके अलावा पुराने मोबाइल के की-पेड में पांच नंबर पर एक उभरा हुआ बिंदु होता है, ऐसा फोन स्टिंग में बहुत लाभदायक होता है। जरूरत पड़ने पर आप जेब में रखे फोन को छूकर उस बिंदु को तलाश सकते हैं और अगर आपने पांच नंबर पर स्पीड डायल में ऐसे व्यक्ति का नंबर दर्ज कर रखा है जो आपकी मदद के लिए तैयार है या आप उसे तैयार करके आए हैं तो वह तुरन्त ही घटनास्थल पर पहुंचकर आपको बचाने में सहयोग कर सकता है। जैसे एक बार संवाददाता अपने एक साथी पत्रकार सहित एक विश्वस्त पुलिस अधिकारी को अपने ऑपरेशन की जानकारी देकर मौके पर पहुंचा लेकिन रिश्वतखोरों को संदेह हो गया और उन्होंने दरवाज़ा बंद कर संवाददाता को बंधक बना लिया। इसपर संवाददाता ने उन्हें अपनी बातों में उलझाकर जेब में हाथ डाला और पांच नंबर को, की-पैड पर उभरे हुए बिंदु से तलाश कर हार्ड प्रेस कर दिया। इससे नंबर डायल हो गया और आपात स्थिति में मदद के लिए तैयार किए गए संवाददाता व पुलिस अधिकारी ने बातें सुनकर अंदाज़ा लगा लिया कि ऑपरेशन असफल हो रहा है। ऐसे में वे तुरन्त मदद के लिए पहुंचे और संवाददाता को मुश्किल में पड़ने से बचा लिया। इसी प्रकार यदि स्टिल कैमरे से ही स्टिंग करना हो तो मोबाइल के सीक्वेंस मोड की जांच कर लेनी चाहिए कि एक बार फोटो खींचने का बटन दबाने पर वह लगातार कितनी फोटो और कितनी देर में खींच रहा है। 

5. कलर कोड यानि उपयुक्त रंग की जांच- रैकी और अभ्यास जांच में आपको यह भी देखना समझना चाहिए कि जिस जगह आपको स्टिंग ऑपरेशन करना है वहां का आम रंग क्या है यानि वहां अधिकांश लोग कौनसे रंग के कपड़े पहनते हैं। आम तौर पर स्लेटी, क्रीम और सफेद रंग ध्यान खींचने वाले नहीं होते। यदि आप चटख या गहरे रंग के कपड़े पहनकर मौके पर स्टिंग करने जाएंगे तो आपके परिधान के रंग की वजह से लोगों का ध्यान आपकी ओर जाएगा। ऐसे में आपका ऑपरेशन खतरे में पड़ सकता है। एक संवाददाता इसी गलती के कारण ऑपरेशन पूरा नहीं कर पाया और उसे यह समझ भी नहीं आया कि आखिर लोग उसकी तरफ देख क्यों रहे थे। क्योंकि रंगों को लेकर सतर्कता का विचार उसे आया ही नहीं। उस संवाददाता के कपड़ों के गहरे लाल रंग के कारण कर्मचारी उसके रंग की ओर आकर्षित हुए क्योंकि वह अकेला ही ऐसे रंग का कमीज़ पहने था और चाहे-अनचाहे उसकी गतिविधि पर गौर करने लगे, फिर उन्हें संदेह हुआ तो सतर्कता बरतने लगे। कुल मिलाकर संवाददाता के परिधान ने ही लोगों को सतर्क कर दिया। यानि परिधान या कपड़ों का चयन देख परखकर खुदको छिपाए रखने के लिए किया जाना चाहिए।

6. मेकअप से पहचान छिपाना- बरसों पहले राजा-महाराजा भी भेष बदलकर अपनी जनता और राजकीय कामकाज की परदर्शिता को परखा करते थे। इसी प्रकार कई बार संवाददाता को स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए अपना रूप बदलना पड़ता है क्योंकि वह अपनी पहचान छिपाना चाहता है। अब सवाल यह उठता है कि जब संवाददाता को अपनी पहचान छुपानी ही पड़ रही है तो उसे खुद ऑपरेशन करने की आवश्यकता क्या है। इसका जवाब यह है कि एक संवाददाता जब स्वयं ऑपरेशन करता है तो वह अपने स्तर पर आवश्यक तथ्यों का संकलन करता है यानि समाचार के लिए सभी आवश्यक तथ्यों के सुबूतों को ध्यान में रखते हुए दृश्य या फोटो खींचता है। दूसरा कारण यह है कि संवाददाता के मौके पर मौजूद होने से वह पूरे मामले का सत्य और तथ्य के आधार पर परीक्षण व जांच करके संतुष्ट हो सकता है लेकिन अगर कोई दूसरा इस काम को करेगा तो हो सकता है कि वह पत्रकारिता के मापदण्ड के अनुरूप काम न करे। तीसरा कारण यह है कि अगर मौके पर कुछ गड़बड़ी हो जाती है तो उसे पत्रकार होने का लाभ मिल पाता है और वह नकारात्मक परिस्थिति में खुदको संभाल सकता है जबकि ऐसे ऑपरेशन में किसी दूसरे का उपयोग करने पर उसे बचाना बेहद जटिल काम हो जाता है। इसीलिए अधिकांश मामलों में संवाददाता खुद ही ऐसे ऑपरेशन को अंजाम देते हैं। अब जहां तक रूप बदलने की बात है तो एक संवाददाता को मेकअप से अपना चेहरा इस प्रकार बदलना चाहिए कि उसकी पहचान उसी अनुरूप हो जैसा वह बताना चाहता है। पहचान छिपाने को लेकर भी अच्छा खासा शोध और अभ्यास करना पड़ता है साथ ही हाव-भाव और बोलचाल की भाषा भी उसी किरदार के मुताबिक चुनी जाती है। यह एक नाटकीय प्रस्तुति होती है इसीलिए यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि मेकअप, भाषा और प्रस्तुति किसी भी स्तर पर संदेह को जन्म देने वाले नहीं होने चाहिए। 

7. प्रश्नावली का निर्माण- स्टिंग ऑपरेशन में पूछे जाने वाले सवाल भी संवाददाता को पहले ही तैयार कर लेने चाहिए। जिसमें उसे इस बात का खास ख्याल रखना पड़ता है कि अगर किसी रिश्वतखोरी से जुड़ी सच्चाई को उजागर करना है तो सवालों के ज़रिए प्राप्त जवाबों में इस बात की पुष्टि हो जाए कि किस काम के लिए कितनी रिश्वत ली जा रही है और उसके बदले काम कब और कैसे होगा। इसमें संवाददाता कई बार ऐसे सवाल भी शामिल करता है जैसे रिश्वतखोर से पूछा जाता है कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो जाएगी। ऐसे में दो तरह के जवाब आते हैं एक प्रकार के जवाब में रिश्वत लेने वाला अपनी प्रशंसा में कुछ मामलों का जिक्र कर सकता है या फिर पूरी व्यवस्था में शामिल लोगों का उल्लेख करते हुए अपने अभ्यस्त होने की स्वीकारोक्ति कर सकता है। हालांकि सवाल पूछने का कोई तय नियम नहीं है कि आपने पहले से जो सवाल तैयार कर लिए हैं उसी दिशा में चलना होगा। कई बार मौके पर स्थितियां पूरी तरह बदल जाती हैं। ऐसे में आपकी पूर्व तैयारी काम नहीं आती। लिहाजा ऐसे समय संवाददाता के अपने संवाद कौशल और मौके पर बनाई रणनीति ही काम आती है। इसके बावजूद पहले से सवालों की तैयारी स्टिंग ऑपरेशन के दौरान पूछताछ के आपके दायरे का विस्तार करती है। इसमें संभावनाओं के आधार पर सवाल और विविध स्थितियों की संभावना के आधार पर संवाददाता अपनी प्रतिक्रिया के पैटर्न तय कर सकते हैं। 

सतर्कता की परीक्षा-
स्टिंग ऑपरेशन का उद्देश्य छिपे हुए गलत कार्याें के प्रमाण एकत्र करना है, लिहाजा आपको सतर्कता की परीक्षा देनी पड़ती है। ऐसे में आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि आप तो सजग हैं लेकिन जो लोग सत्य को छिपाना चाहते हैं और भ्रष्टाचार जैसी गतिविधियों में लिप्त हैं वे भी अपने काम में पूरी सतर्कता बरतते हैं। जिस प्रकार संवाददाता अपने सूत्रों के नेटवर्क का इस्तेमाल करता है वैसे ही गलत काम में लिप्त लोग भी अपने सहयोगियों और मुखबिरों के ज़रिए अपने काम को सुनियोजित ढंग से अंजाम देते हैं। ऐसे में एक संवाददाता को अतिरिक्त सावधानी और दोहरी व तिहरी जांच करते हुए सभी तथ्यों का प्रमाण जुटाना पड़ता है। यही नहीं अगर एक संवाददाता पूरी तरह सूत्र पर ही निर्भर रह जाता है तो माना जाता है कि उसकी कामयाबी का प्रतिशत घट जाता है। इसीलिए एक संवाददाता को सूत्र की बनाई गई रणनीति के बजाए खुदपर भरोसा रखते हुए अनुसंधान के आधार पर तय की गई अपनी रणनीति के तहत ऑपरेशन करना चाहिए।

स्टिंग ऑपरेशन की कामयाबी यानि इम्पैक्ट- 
आम तौर पर यह माना जाता है कि एक संवाददाता या उसकी टीम ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया और उसे प्रकाशित या प्रसारित कर दिया गया। जिसे दर्शकों ने देखा और सराहा, यही स्टिंग की कामयाबी है। हर बार ऐसा होगा यह जरूरी नहीं है क्योंकि स्टिंग ऑपरेशन का उद्देश्य किसी गड़बड़ी पर रोक लगाना और गलत काम वाले व्यक्ति पर कड़ी कार्रवाई करवाना है। जिसे समाचार की दुनियां में इम्पैक्ट कहा जाता है। आपके ऑपरेशन का मूल्य, इम्पैक्ट यानि असर व परिणाम से तय होता है। लिहाजा प्रकाशन या प्रसारण से पहले भी ठोस तैयारी की जानी चाहिए। इसके लिए कई सवालों के जवाब तलाशने होते हैं कि कहीं आपके ऑपरेशन को दिखाने से सुबूत खुर्दबुर्द तो नहीं कर दिए जाएंगे, आरोपी फरार तो नहीं हो जाएंगे, उस अनियमितता पर पर्दा डालने या उससे इनकार करने के लिए क्या आधार तैयार किया जा सकता है। इन सवालों के जवाब के बाद एक संवाददाता इम्पैक्ट की रणनीति बना सकता है। उदाहरण के लिए टीवी पर उस स्टिंग ऑपरेशन के प्रसारण का ऐसा समय चुन सकता है जिससे सुबूत नष्ट न किए जा सकते हों। जैसे एक बार संवाददाता को लगा कि सरकारी कार्यालय के भ्रष्टाचार से जुड़ा यह स्टिंग ऑपरेशन कार्यालय समय में दिखाने से फाइलें गायब हो सकती हैं। तो वह ऑपरेशन सुबह 6 बजे दिखाया गया और उसकी जानकारी महकमें के वरिष्ठ अधिकारियों को दी गई। जिसके बाद छापेमारी में सभी दस्तावेज बरामद हो गए और अनियमितता की पुष्टि भी हो गई। इसी प्रकार एक बार एक तांत्रिक का स्टिंग ऑपरेशन करने के बाद संवाददाता को लगा कि पुलिस को साथ लिए बिना अगर उस स्टिंग का प्रसारण कर दिया जाता है तो वह तांत्रिक और उसका गैंग फरार हो सकता है। ऐसे में संवाददाता ने एक ईमानदार पुलिस आयुक्त को वह स्टिंग ऑपरेशन दिखाया और जनहित में कार्रवाई की मांग की। इसके बाद पुलिस आयुक्त ने सादा वर्दी में अपने एक विश्वस्त पुलिस अधिकारी को जांच-पड़ताल के लिए भेजा और दो दिन बाद सीक्रेट ऑपरेशन तय कर रात के तीन बजे भारी पुलिस बल के साथ खुद पुलिस आयुक्त ने छापेमारी कर तांत्रिक और उसके सहयोगियों को धर दबोचा। यही नहीं मौके से लाखों रूपए और सैकड़ों सोने के गहने बरामद किए गए। उल्लेखनीय है कि हर स्टिंग ऑपरेशन में आप किसी वरिष्ठ अधिकारी को साझा नहीं कर सकते लेकिन संभव हो और संवाददाता आश्वस्त हो तो निश्चय ही प्रशासनिक सहयोग से इम्पैक्ट मजबूत रखने के लिए साझेदारी की जानी चाहिए। लेकिन संवाददाता को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसका स्टिंग ऑपरेशन देशहित और समाज के हित में है या नहीं। उदाहरण के लिए एक बार संवाददाता को यह जानकारी मिली की सीमा पर पाकिस्तानी सेना, भारतीय सरहदों के नज़दीक अपने हज़ारों सैनिकों को तैनात कर रही है और एक तस्कर भी पाकिस्तान से भारतीय सीमा में आने वाला है। यह जानकारी मिलने पर संवाददाता ने सरहद के एक गांव में पहुंचा और देखा कि पाकिस्तानी सेना वाकई सरहदों पर तैनात हो रही है। लेकिन तारबंदी के करीब बीएसएफ के सभी वाॅच टाॅवर यानि मचाने खाली पड़ी हैं और कई किलोमीटर तक कोई भी जवान नफरी यानि पैट्रोलिंग करता हुआ नज़र नहीं आया। इसपर संवाददाता ने सभी दृश्य अपने कैमरे में बनाए और बीएसएफ के आईजी को इसकी जानकारी दी। इसके बाद आईजी ने तुरन्त संज्ञान लेते हुए जवानों को नफरी के लिए भेजा और कुछ दिन बाद भारी बारिश में एक तस्कर को छिपकर कैमरे में कैद किया गया, जिसे सेना ने गिरफ्तार कर लिया। इस समाचार के प्रसारण में संवाददाता ने देशहित में सरहद पर खाली वाॅच टाॅवर और पैट्रोलिंग न होने का कहीं उल्लेख नहीं किया। क्योंकि एक संवाददाता को यह समझना जरूरी है कि आपकी दिखाई गई एक जानकारी राष्ट्र और समाज को नुकसान पहुंचा सकती है। यह पत्रकारिता का नैतिक सिद्धान्त भी है और आचार संहिता में भी इसका उल्लेख किया गया है। 

स्टिंग ऑपरेशन यानि पारदर्शिता और प्रतिष्ठा का निर्माण- कुल मिलाकर स्टिंग ऑपरेशन एक पत्रकार या संवाददाता ही नहीं उसके प्रकाशन या प्रसारण माध्यम की छवि, साख और प्रतिष्ठा का निर्माण करता है। इस प्रकार के ऑपरेशन समाज की भीतर पनपने वाली सभी प्रकार की अनियमितताओं को हटाने या नष्ट करने का सटीक तरीका माने जाते हैं। जिस प्रकार एक डाॅक्टर, ऑपरेशन के ज़रिए किसी मरीज को नवजीवन देता है, उसे बीमारी से मुक्ति देता है और सावधानियों के लिए प्रेरित करता है। उसी प्रकार स्टिंग ऑपरेशन भी समाज, प्रशासन, राजनीति और व्यवस्था में पनप रही बुराई को दूर करने का प्रयास कता है और गलत काम रोकने के लिए आगाह भी करता है। इसीलिए अधिकांश प्रकाशन व प्रसारण माध्यम व्यवस्था, समाज, मानव, देश और जनहित में स्टिंग ऑपरेशन को आजमाते हुए स्वस्थ निर्माण और पारदर्शी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करते हुए उल्लेखनीय योगदान देते हैं। 

- Dr. Sachin Batra, Associate Professor, SHARDA UNIVERSITY

This Chapter is published in the prestigious Website NEWSWRITERS.IN
http://www.newswriters.in/2015/06/24/sting-operation-method-process/ 

Tuesday, June 23, 2015

INVESTIGATIVE JOURNALISM खोजी पत्रकारिता

INVESTIGATIVE JOURNALISM खोजी पत्रकारिता 
- डाॅ सचिन बत्रा, असोसिएट प्रोफेसर, जनंचार विभाग, शारदा विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा

खोजी पत्रकारिता को अन्वेषणात्मक पत्रकारिता भी कहा जाता है। सच तो यह है कि हर प्रकार की पत्रकारिता में समाचार बनाने के लिए किसी न किसी रूप में खोज की जाती है यानि कुछ नया ढूंढनेे का प्रयास किया जाता है फिर भी खोजी पत्रकारिता को सामान्य तौर पर तथ्यों की खोजने से अलग माना गया है। खोजी पत्रकारिता वह है जिसमें तथ्य जुटाने के लिए गहन पड़ताल की जाती है और बुनी गई खबर में सनसनी का तत्व निहित होता है। विद्वानों का मत है कि जिसे छिपाया जा रहा हो, जो तथ्य किसी लापरवाही, अनियमितता, गबन, भ्रष्टाचार या अनाचार को सार्वजनिक करता हो अथवा किसी कृत्य से जनता के धन का दुरूपयोग किया जा रहा हो ऐसे समाचारों को सामने लाना खोजी पत्रकारिता है। कुल मिलाकर सत्य और तथ्य का रहस्योद्घाटन करना यानि किसी बात की तह तक जाना, उसका निष्पक्ष निरीक्षण करना और उस विषय से जुड़े संदर्भ, स्थितियां परिस्थितियां व गड़बड़झाले को रेखांकित करना खोजी पत्रकारिता है। यह भी कहा गया है कि जब तथ्यों की पड़ताल, दस्तावेजों की खोज के अलावा किसी भी गलत काम को साबित करने वाले सभी साक्ष्यों को अपने बलबूते हासिल करते हुए एक संवाददाता समाचार बनाता है उसे ही खोजी पत्रकारिता माना जाएगा। खोजी पत्रकारिता का उद्देश्य बदले की भावना या निजी हित नहीं होना चाहिए बल्कि स्वप्रेरित नैतिकता और आचार संहिता को आधार मानते हुए जिस जानकारी को बेपर्दा किया जा रहा है उसका जनहित से सीधा संबंध होना चाहिए। 

खोजी पत्रकारिता को जासूसी करना भी कहा जाता है। इसे न्याय दिलाने का समानांतर माॅडल और जनता के लिए तय कानून और व्यवस्था को दायित्वपूर्ण बनाए रखने वाला मध्यस्थ भी कहा जा सकता है। यह गहन जांच-परख और अनुसंधान की एक लंबी प्रक्रिया होती है। इसे सच को सामने की प्रक्रिया भी कहा जाता है इसमें दस्तावेजों की खोज, उनका अध्ययन, साक्षात्कार, मौके की निगरानी, सतर्कता से पड़ताल और घात लगाकर यानि छिपकर सच्चाई को तलाशने के प्रयास किए जाते हैं। खास बात यह है कि खोजी पत्रकारिता में धैर्य, अथक परिश्रम और समय का बहुत महत्व होता है। इसके अलावा खोज के लिए कई बार कई संवाददाताओं को मिलकर काम करना होता है और पर्याप्त धन की भी आवश्यकता होती है।

खोजी पत्रकार के गुण- 
एक खोजी पत्रकार में अनियमितता सूंघने की क्षमता, सतर्कता, धैर्य, अथक परिश्रम, स्त्रोत निर्माण व जनसंपर्क में महारथ, निरीक्षण, संतुलन, सत्य परीक्षण, संदेह की प्रवृत्ति, दस्तावेज जुटाने का हुनर, तथ्यों को जांचने और परखने का कौशल, दबाव सहने की क्षमता, निष्पक्षता और निर्लिप्तता, लेखन में सटीक शब्दों का चयन सहित कानूनों का ज्ञान और पेचीदा विषयों पर समाचार लेखन में बचाव की तकनीक जैसे सभी गुर होने चाहिए। हालांकि उपरोक्त गुण हर प्रकार की पत्रकारिता के लिए आवश्यक हैं लेकिन खोजी पत्रकारिता में अतिरिक्त सतर्कता, संतुलन और सावधानी की आवश्यकता होती है। उल्लेखनीय है कि आज का दौर महज समाचारों का दौर नहीं है, सम्पादक भी अपेक्षा करते हैं कि उनका संवाददाता समाचारों की तह में छिपे समाचार को खोजने और प्रस्तुत करने में समर्थ होना चाहिए। इसीलिए संपादक संवाददाता से अक्सर पूछते हैं कि खबर में खबर क्या है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि सभी अपने समाचारों को अलग और विशिष्ठ अंदाज़ में परोसना चाहते हैं जिससे समाचारों के क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता या साख बनी रहे। ऐसे में जब सामान्य समाचारों के लिए संपादकों की मांग के नियम लगातार कड़े होते जा रहे हो, तब खोजी समाचारों से जनता के भीतर विश्वास की नींव मजबूत करना और पत्रकारिता में अपनी प्रतिष्ठा में उतरोत्तर वृद्धि करना आसान प्रक्रिया नहीं है। खोजी पत्रकारिता संवाददाताओं से अधिक गुणों की मांग इसलिए भी करती है क्योंकि अगर संवाददाता अपने अनुभव के आधार पर सधे और संतुलित तरीके से खोज करते हुए किसी समाचार के आगामी परिणाम का अंदाज़ा नहीं लगा सकता तो एक गलती उसके लिए गंभीर स्थितियां भी पैदा कर सकती है। 

खोजी पत्रकारिता क्यों-
आम तौर पर जहां शक्ति, धन, सम्पत्ति और सत्ता होती है वहां लालफीतास्याही, दस्तावेजों में हेराफेरी, अनियमितताएं, काम में लापरवाही, षड़यंत्र, गबन और नियत तोड़ने के बाद जानकारी छुपाने जैसे अपराध होने की संभावना बनी रहती है। इसके अलावा किसी व्यक्ति विशेष को लाभ या नुक्सान पहुंचाने के लिए पद व धन के दुरूपयोग जैसी स्थितियां कहीं न कहीं बनती ही हैं। ऐसे उल्लंघनों पर नकेल डालने के लिए खोजी पत्रकारिता की जाती है। माना जाता है कि सरकार, कंपनियां, संगठन, संस्थान और व्यक्ति भी कई नियम, कानून, निर्णय और घटनाएं छिपाने का प्रयास करते हैं, जिनका दूसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में खोजी पत्रकारिता उन छिपे अपराधों को सामने लाकर लोगों को न्याय दिलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक तर्क यह भी है कि हमें, हमारे समाज को, कानून की बागडोर संभालने के लिए अधिकृत लोगों कोे और जनहित के लिए निर्णायक पदों पर बैठे लोगों को समय-समय पर सतर्क किया जाना चाहिए कि गलत क्या और कैसे हो रहा है, कानून कहां तोड़ा जा रहा है, फैसलों में पक्षपात कहां है, व्यवस्था में लापरवाही या अपराध कहां और कैसे पनप रहा है। कुल मिलाकर खोजी पत्रकारिता, संतुलन कायम रखने वाली स्वप्रेरित जिम्मेदारी का निर्वाह करती है ताकि शक्ति, सत्ता और प्रभावपूर्ण पदों पर आसीन लोग अपने अधिकृत दायित्वों का निर्वाह उचित प्रकार से करते रहें। इसके अलावा हमारे प्रजातंत्र के तहत स्थापित राजनीतिक व्यवस्था में वचनबद्धता को स्थिर रखने के लिए भी खोजी पत्रकारिता बहुत जरूरी है क्योंकि सत्ता से जुड़े लोग जनता को लुभाने के लिए वादे करते हैं लेकिन बाद में कई वादे भुला दिए जाते हैं। यानि शक्ति, सत्ता और पद के प्रभुत्व को न्यायोचित दायरे में रखने, भ्रष्टाचार रोकने, उनकी निगरानी करने और जनहित में विकसित करने के लिए खोजी पत्रकारिता के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। 




























  
 
   (These photographs of Salman Khan & Saif Ali Khan was first discovered by Dr Sachin Batra, the then Reporter and Bureau of Sahara Samay Natonal News Channel. It was the outcome of an intensive investigation against the celebrities, who denied in the court about weapons and Salman also claimed that he never drove the Gypsy at his own. These photographs revealed that their claims were false.)

Dr Sachin Batra also revieled the first video of Slaman Khan's statement recorded by the Forest Department Officials in 1998, immediate after his arrest on alleged black bug poaching. The video links are as follows:

News Sory-  https://www.youtube.com/watch?v=dFGyTxpAKBk
Video 1-   https://www.youtube.com/watch?v=UMaYpkpC7rc&t=1s
Video 2-   https://www.youtube.com/watch?v=zkCLvmjbjFg&t=1s
Video 3-   https://www.youtube.com/watch?v=PMDDleHrn5c


                  खोजी पत्रकारिता के औज़ारः
रैकी यानि छानबीन-
 खोजी पत्रकारिता में रैकी का विशेष महत्व है। रैकी को निरीक्षण करना भी कहा जाता है यानि किसी प्राथमिक जानकारी की पुष्टि करने के लिए मौके पर छानबीन करना। रैकी एक प्रक्रिया है जिसमें स्पाॅट यानि स्थल का निरीक्षण करते हुए अवलोकन किया जाता है। इसमें संवाददाता की संदेह की क्षमता, कल्पनाशीलता और अनुभव की परीक्षा होती है। रैकी के दौरान पत्रकार मौके पर संदेह के अलग-अलग आयामों की दृष्टि-दिशा में संदेहों को परखता और विश्लेषण करता है। उदाहरण के लिए एक पत्रकार रोडवेज के किसी बस स्टैण्ड पर गया तो वहां उसके मस्तिष्क में कानून और यात्रियों को बुनियादी सुविधाओं से जुड़े कुछ सामान्य संदेह हो सकते हैं जैसे कि कर्मचारियों की सेवाओं में कमीं या लापरवाही कहां हैं, लोगों को कुछ न कुछ परेशानी तो होगी ही, टिकट बिक्री में छुट्टे पैसे अवैध रूप से लिए जा सकते हैं, जनसुविधाओं में कुछ कमीं होगी, अधिकृत स्टाॅल पर तय कीमत से अधिक वसूली हो सकती है, प्रतिबंधित वस्तुए यानि तंबाकू या सिगरेट आदि तो नहीं बेची जा रही आदि। 

रैकी का उदाहरण समझाने के लिए एक एक बार पत्रकारिता के विद्यार्थियों को कैमरा टीम के साथ बस अड्डा ले जाया गया और निरीक्षण के लिए विद्यार्थियों के चार समूहों को संदेह क्षेत्र दिए गए, उन्हें समझाया गया कि अगर आपका कैमरा लेकर जाएंगे तो आपकी पहचान सार्वजनिक हो जाएगी और संदेह की जांच नहीं हो पाएगी। मौके पर ऐसा ही हुआ, विद्यार्थियों ने अपने संदेहों की जांच के परिणाम बताए, उसके बाद कैमरा टीम के साथ बस अड्डे पहुंचे। विद्यार्थियों ने बताया था कि सार्वजनिक नलों में पानी नहीं आ रहा है, लेकिन कैमरा टीम के साथ पहुंचने पर पाया कि सभी नलों में पानी आ रहा है, पूछताछ में यात्रियों ने बताया कि यहां कभी भी पानी नहीं आता और मजबूरन यात्रियों को बोतलबंद पानी खरीदना पड़ता है। वहां अवलोकन किया तो पाया कि सभी स्टाॅल्स पर पानी की बेहिसाब बोतलें बिक्री के लिए रखी थी। इस रैकी से यह पता चला कि रोडवेज विभाग के कर्मचारी और स्टाॅल संचालकों में मिलीभगत है और जनता के लिए स्थापित प्याऊ का पानी बंद कर बोतलें बेचने वालों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। 

इसके बाद विद्यार्थियों को रैकी का उदाहरण समझाने के लिए हम एक दीवार के पीछे छिपकर अवलोकन में पाया कि सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान प्रतिबंधित होने के बावजूद यात्री ही नहीं रोडवेज के कर्मचारी भी बीड़ी-सिगरेट पी रहे हैं। उन दृश्यों को कैमरे में कैद करने के बाद रोडवेज अधिकारियों से पूछताछ की गई कि धूम्रपान प्रतिबंध के तहत कितने लोगों से जुर्माना वसूला गया। जवाब सुनकर आश्चर्य हुआ कि सार्वजनिक स्थलों पर सैकेण्ड हैण्ड स्मोकिंग रोकने के लिए बनाए कानून के तहत जुर्माने से जुड़ी कार्रवाई का कोई रिकार्ड उपलद्ध नहीं था। 

इसी प्रकार रेलवे स्टेशन पर रैकी करने के बाद जानकारी मिली कि कुछ लोग लंबी दूरी की रेल में जनरल सीटों पर कब्जा कर लेते हैं और यात्रियों से पैसे वसूलकर उन्हें सीट देते हैं, उसके बाद अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं। इसके कारणों की गहन पड़ताल में रेलवे के गैंगमैन की सांठ-गांठ उजागर हुई कि गैंगमैन रेल के प्लेटफार्म पर पहुंचने से पहले ही सर्विस लेन में डिब्बे का ताला खोलकर वसूली करने वाले गैंग को बैठा देता था। इस प्रकार रैकी खोजी पत्रकारिता का एक ऐसा तरीका है जिसमें मौके पर समाचार संकलन किया जा सकता है। 

दस्तावेज हासिल करना- 
खोजी पत्रकारिता में दस्तावेज का बहुत महत्व है क्योंकि दस्तावेज एक ऐसा साक्ष्य होता है जिसे नकारा या झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन दस्तावेज हासिल करना आसान काम नहीं है। सरकारी उपक्रमों, कार्यालयों और अन्य प्रतिष्ठानों से जुड़े दस्तावेज प्राप्त करने के लिए सूत्र या स्त्रोत संवाददाता के लिए वरदान होते हैं इसीलिए कहा जाता है कि एक पत्रकार की कामयाबी की कुंजी उसके सूत्रों का जाल होता है। हालांकि दस्तावेजों के मामले में खास सावधानी की आवश्यकता होती है क्योंकि कई बार कर्मचारी अपने अधिकारियों से बदला निकालने के लिए ऐसे दस्तावेज संवाददाताओं को देते हैं जिससे अधिकारी को नुकसान पहुंचे लेकिन वे दस्तावेज आरोप के लिए उपयुक्त नहीं होते और उन साक्ष्यों पर आधरित समाचार के प्रकाशन से संवाददाता और समाचार की साख भी गिरती है। लिहाजा दस्तावेजों की दोहरे और तिहरे स्तर पर जांच और पुष्टि जरूर की जानी चाहिए। एक घटना उल्लेखनीय है जिसमें एक सरकारी विभाग में एक नए अधिकारी ने पदभार संभाला और पुराने कर्मचारियों की अनुशंसा पर एक फर्म के पक्ष में वर्क आर्डर जारी कर दिया। वर्क आर्डर लागू होने से पहले ही उस अधिकारी को फर्म की गड़बड़ी की जानकारी मिल गई और संशोधित आदेश में पुराने आर्डर को रद्द कर दिया गया। लेकिन वहां कार्यरत एक कर्मचारी ने अपने अधिकारी से बदला निकालने के लिए पुराने वर्क आर्डर की काॅपी और कार्यालय के रिकार्ड में उस फर्म के काली सूची में दर्ज होने से जुड़ा एक और दस्तावेज पत्रकार को दिया। जिससे अधिकारी के भ्रष्टाचार में लिप्त होने का समाचार प्रकाशित हो सके। इसके बाद संवाददाता ने सूत्र से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर नकारात्मक समाचार बनाया लेकिन वरिष्ठ उप संपादक ने सावधानी बरतते हुए उस अधिकारी से बात की तो अधिकारी ने मूल दस्तावेज दिखाते हुए बताया कि संशोधित आदेश में फर्म का वर्क आर्डर रद्द कर दिया गया था। इस जानकारी से अधिकारी के निरपराधी होने की बात सामने आई। यदि पहले वाले दस्तावेज पर आधारित समाचार प्रकाशित हो जाता तो एक ईमानदार अधिकारी की कार्यशैली पर सवाल उठ सकते थे और समाचार भी गलत होता। 

दरअसल दस्तावेज छुपाए गए निर्णयों को सार्वजनिक करने और किसी प्रक्रिया को समझने में अहम योगदान भी देते हैं। उदाहरण के लिए एक बार किसी पाठक ने जानकारी दी कि ई-मित्र क्योस्क पर बिजली के बिल जमा कराने के बावजूद भी बिजली विभाग बिल को बकाया बताकर जुर्माना लगा रहा है। स्थानीय लोगों से जमा बिल की रसीदें लेने के बाद बिजली विभाग में पूछताछ करने पर उन्होंने बकाया होने की बात कही। काफी मेहनत करने पर भी कोई जानकारी नहीं मिली तो ई-मित्र संचालक समिति के अधिकारियों से सूचना जुटाने का प्रयास किया गया। वहां भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला, इसके बाद सूत्रों की मदद ली गई तो सामने आया कि जिला कलेक्टर ने उस ई-मित्र क्योस्क का लाईसेंस अस्थाई रूप से निरस्त कर दिया है, लेकिन उसका दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किया गया। जानकारों ने बताया कि निरस्त ई-मित्र क्योस्क अवैध रूप से लोगों से पैसे लेकर बिल जमा की फर्जी रसीद दे रहा है और अब पोल खुलने पर दुकान बंद कर गायब है। दस्तावेजों पर आधारित इस मामले की गहन पड़ताल करने पर सामने आया कि कलेक्टर कार्यालय के कर्मचारी ई-मित्र संचालक से रिश्वत मांग रहे हैं। इस समाचार के प्रकाशन के बाद कलेक्टर पर भी सवाल उठा कि ई-मित्र क्योस्क का लाईसेंस रद्द करने की जानकारी सार्वजनिक क्यों नहीं की गई। आखिरकार इस समाचार के चलते ई-मित्र संचालक को धोखाधड़ी के तहत गिरफ्तार कर लोगों के बकाया बिल जमा कराए गए। 

कुल मिलाकर खोजी पत्रकारिता में दस्तावेज ऐसे सुबूत का काम करते हैं जिनसे समाचार की विश्वसनीयता बढ़ती है। हालांकि अब सूचना प्राप्ति के अधिकार के तहत आवेदन कर कई पत्रकार सवाल पूछते हैं और जवाब में दस्तावेज की मांग करते हैं। जिसके आधार पर समाचार बनाने में दस्तावेज के अप्रामाणिक होने का खतरा नहीं होता। यानि दस्तावेजों के लिए सिर्फ सूत्रों पर निभर्रता नहीं है। 


सवाल-जवाब या साक्षात्कार- 
आम तौर पर पीडि़त, प्रत्यक्षदर्शी और सरकारी या निजी संस्थानों के अधिकारियों से भी बातचीत कर जानकारी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन सवाल-जवाब या साक्षात्कार के दो नियम है एक यह कि आप अपनी पहचान गोपनीय रखते हुए पूछताछ करते हैं और दूसरा पहचान सार्वजनिक करते हुए जवाब प्राप्त कर सकते हैं। दोनों में से क्या ठीक रहेगा इसका फैसला संवाददाता के अनुभव और विवेक से तय होता है। क्योंकि कई बार संवाददाता को पहचान छिपाने से ही सूचना मिलती है और कुछ मामलों में पहचान सार्वजनिक किए बिना जानकारी पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए एक रोचक घटना है जिसमें एक ट्रैफिक पुलिस का हवलदार पान वाले से झगड़ रहा था। दोनों की तकरार समाप्त होने के बाद पास खड़े लोगों से कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि ट्रैफिक पुलिस के हवलदार ने वाहन की चैकिंग की तो दस्तावेज पूरे नहीं मिले। इसपर उसने ड्राइवर को रिश्वत जमा कराने सड़क के पार पनवाड़ी के पास भेजा। अब हुआ यूं कि ड्राइवर ने पनवाड़ी से कहा कि हवलदार को हज़ार रूपए दिए हैं पांच सौ रूपए मंगवा रहा है। इसके बाद पनवाड़ी ने हवलदार को पांच उंगलियां दिखाते हुए पैसे देने की सहमति मांगी, हवलदार ने समझा पैसे जमा कराने की बात है तो उसने सहमति में सर हिला दिया। इसके बाद ड्राइवर पांच सौ रूपए लेकर चंपत हो गया। जब हवलदार हिसाब करने पनवाड़ी के पास गया तो पांच सौ रूपए कम निकले, इसपर दोनों में बहस हो गई। 

यहां संवाददाता ने अपनी पहचान छिपाकर सूचना प्राप्त की लेकिन कई बार पहचान बताने पर ही सूचना मिल पाती है। एक बार एक अस्पताल में शव परीक्षण कक्ष के बार कुछ लोग तनाव में बैठे थे, जब कोई उनके पास आ जाता तो बात करना बंद कर देते। संवाददाता को संदेह हुआ तो उसने उनकी परेशानी जाननी चाही लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया। जब पत्रकार होने की बात कही तो उन्होंने बताया कि वे मृतक के परिजन हैं और बीती रात से अपने संबंधी की शव पाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन पोस्टमार्टम विभाग के कर्मचारी लाश देने के लिए एक हज़ार रूपए मांग रहे हैं। इस प्रकार पहचान बताने पर ही सूचनाएं प्राप्त हो पाई। जिसपर समाचार भी बना और संवाददाता के हस्तक्षेप से उन्हें तुरन्त अपने संबंधी का शव भी मिल पाया। 






निगरानी या औचक निरीक्षण- 
इसे आॅन द स्पाॅट वेरीफिकेशन भी कहा जाता है। इसमें संवाददाता किसी अंदाजे या सूचना के आधार पर अचानक घटनास्थल पर पहुंच जाता है और या तो चुपचाप निगरानी करता है या फिर पूछताछ शुरू कर देता है। उदाहरण के लिए एक बार संवाददाता को अकाल राहत कार्य में धांधली कि शिकायत मिली, उसके बाद संवाददाता और कैमरामैन मौके पर पहुंचे तो पाया कि वहां गांव का कोई भी आदमी काम नहीं कर रहा था। उसके बाद नजदीक ही एक ढ़ाबे पर बैठकर गतिविधियों पर नज़र रखी गई। कुछ घंटों बाद अकाल राहत स्थल की ओर से मशीनों की आवाज़ आने लगी। वहां देखा तो पाया कि अकाल राहत कार्य जेसीबी की मदद से किया जा रहा है जबकि सरकारी योजना में गांव के लोगों को 100 दिन रोजगार और पारिश्रमिक देने का दावा किया गया था। इस दृश्य को कैमरे में कैद करने ग्रामीणों से बात की तो पता चला कि गांव के सरपंच ने अपने जानकारों के नाम दर्ज कर उनके बैंक खाते खोलकर अकाल राहत का पैसा हड़प रहा है। 

इसी प्रकार स्कूलों में परीक्षा का औचक निरीक्षण करने के लिए संवाददाता ने यह तय किया कि ऐसे सरकारी स्कूल का दौरा करेंगे जहां पक्की सड़क नहीं जाती हो। इसके बाद दो स्कूलों का मोआयना किया लेकिन वहां सब ठीक मिला। जब रेत के टीलों से होते हुए एक गांव में पहुंचे तो वहां सरकारी स्कूल पर ताला लगा था। जब संवाददाता ने खिड़कियों से अंदर झांका तो बोर्ड पर उस दिन की तारीख, समय और परीक्षा की पूरी जानकारी लिखी हुई थी, यही नहीं जमीन पर चैकोरे बनाकर विद्यार्थियों के रोलनंबर भी दर्ज किए हुए दिखाई दिए। अब सवाल यह उठा कि परीक्षा के समय स्कूल पर ताला कैसे लगा है। इसका पता लगाने के लिए गांव के लोगों से पूछताछ की गई तो उन्होंने बताया कि स्कूल के मास्टर तो कभी आते ही नहीं हैं। मौके पर पाया कि जिन बच्चों की परीक्षा होनी थी उनमें से कई खेत में काम कर रहे थे। इस प्रकार औचक निरीक्षण से एक समाचार की खोज की गई। 



धन का अनुवर्तन-़ 
कहतें हैं कि धन का लालच अपराध को जन्म देता है और जहां सत्ता, शक्ति और सरकार है वहां वैध और अवैध तरीके से धन जुटाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है सभी जगह ऐसा हो मगर आम तौर पर धन से जुड़ी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार होता ही है। इसीलिए एक संवाददाता को पैसे का लेनदेन देखना और समझना चाहिए यानि धन का पीछा करना चाहिए और असामान्य लेनदेन को जांचना-परखना चाहिए। आप अपने जीवन में ऐसे कई उदाहरण अपने इर्द गिर्द देखते हांेगे वाहन चालकों से पैसे लेता हुआ ट्रेफिक पुलिस वाला, रेलवे के माल गोदाम में पैसे देते लेते लोग आदि। यह तो एक आम दृष्य है लेकिन आप सोचिए कि एक सरकारी कार्यालय के बाहर अगर कोई पान की दुकान पर नोटों की गड्डी दे रहा है तो यह निश्चय ही संदेह का विषय हो सकता है और खास तौर पर रूपए लेते समय लेने और देने वालों का विशेष सावधानी बरतना यानि अपने आस-पास सतर्कतता बरतते हुए जल्दबाजी में लेना और छिपाना भी संदिग्ध गतिविधि है। ऐसी बातों पर खास ध्यान देते हुए पड़ताल करनी चाहिए।

उदाहरण के लिए एक बार संवाददाता ने देखा कि नगर निगम कार्यालय में जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र देने की खिड़की पर लोग आवेदन पत्र में 50 रूपए का नोट छिपाकर जमा करा रहे हैं और कर्मचारी सावधानी बरतते हुए नीचे झुककर रूपए संभाल रहा है। लोगों से हल्की फुल्की पूछताछ करने पर उन्होंने बताया कि शुल्क तो दस रूपए है लेकिन पैसे लिए बिना काम नहीं होता। इस प्रकार धन का पीछा करने पर एक समाचार प्राप्त हुआ। इसके अलावा भी कई बार धन का भुगतान कागजों में दिखाया जाता है लेकिन उसके बदले कोई काम नहीं किया जाता। अक्सर समाचारों में पढ़ने को मिलता है कि कांट्रेक्टर को रिश्वत के बदले भुगतान किया जाता है और निर्माण से जुड़े दस्तावेजों में धन का अत्यधिक व्यय दिखाया जाता है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए धन का पीछा करने पर समाचार मिलना तय माना जाता है लेकिन यह आपके संदेह और उसकी जांच पर भी निर्भर करता है साथ ही इसमें भी आपका अनुभव मददगार साबित होता है। अक्सर घोटालों के समाचारों की खोज धन का पीछा करने से ही प्राप्त होती है हालांकि इसमें धन से जुड़े दस्तावेजों का अध्ययन और विश्लेषण भी किया जाता है। 


घात लगाकर सुबूत जुटाना- 
इसे स्टिंग आॅपरेशन, घात पत्रकारिता या डंक पत्रकारिता भी कहा गया है। जैसा कि उपरोक्त बिंदुओं में बताया गया है कि धन का पीछा करना, निगरानी, औचक निरीक्षण और पूछताछ आदि खोजी पत्रकारिता में सहायक होती है। उसी प्रकार स्टिंग आॅपरेशन में भी यही बिंदू काम आते हैं। दरअसल घात पत्रकारिता खोजी पत्रकारिता की कोख से ही निकली है लेकिन इसमें दस्तावेज से अधिक दृश्य या फोटो का विशेष महत्व होता है क्योंकि घात पत्रकारिता में दृश्यों को सुबूत की तरह इस्तेमाल किया जाता है। टीवी माध्यमों में स्टिंग आॅपरेशन का प्रचलन अधिक है क्योंकि यह सनसनी पैदा करती है। लेकिन आज के दौर में किसी गड़बड़ी का छिपकर फिल्मांकन करना या पहचान छिपाकर यानि डेकाॅय बनकर छल से किसी कुकृत्य, गैरकानूनी काम, मिलावट, साजिश, लापरवाही, अपराध, जालसाजी या रिश्वतखोरी को प्रमुखता से दिखाया जाता है क्योंकि उस सनसनी से दर्शक उत्तेजित होते हैं। हमारे देश में इंडियन एक्सप्रेस के अश्विनी सरीन, वरिष्ठ पत्रकार व सांसद रहे अरूण शौरी, तहलका के वरिष्ठ पत्रकार अनिरूद्ध बहल व तरूण तेजपाल, द हिन्दू के संपादक पी साईनाथ, आजतक न्यूज़ चैनल के दीपक शर्मा व धीरेंद्र पुंडीर जैसे कई जाने माने खोजी पत्रकारों ने समाचार संकलन के क्षेत्र मंे गहन शोध की परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसी प्रकार विकी लीक्स ने भी स्विस बैंक में काले धन की खोजी जानकारी सार्वजनिक कर विश्वव्यापी बहस को जन्म दिया। दरअसल स्टिंग आॅपरेशन का सीधा संबंध गोपनीयता से है, इसमें संवाददाता अपनी पहचान छिपाकर या किसी अन्य व्यक्ति की मध्यस्थता से गलत काम करने वालों की गोपनीय कारगुजारियों को अपनी नियंत्रित स्थितियों में प्रेरित करता है और उसे कैमरे में कैद किया जाता है। स्टिंग आॅपरेशन आसान काम नहीं है क्योंकि इसके लिए सही तरीका, समय और स्थितियों को बुनना पड़ता है। यही नहीं स्टिंग के लिए आपके पास पर्याप्त संसाधन होने भी जरूरी हैं। इसमें स्पाई कैमरा वाॅयस रिकार्डर और कई बार मिनी सीसीटीवी कैमरे का भी इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना जरूरी है कि जब किसी स्टिंग के विरोध में कोई अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो संवाददाता को जवाब भी देना पड़ सकता है कि जो स्टिंग किया गया है वह जनहित से कैसे संबध रखता है। यही नहीं मांगे जाने पर संवाददाता को फाॅरेंसिक जांच के लिए उन दृश्यों की मूल प्रति भी देनी पड़ सकती है। जिसमें वीडियो के प्रामाणिक होने की जांच की जाती है और प्रसारण में अनावश्यक संपादन पाए जाने पर कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। अक्सर निजता के अधिकार का उल्लंघन, शासकीय दस्तावेजों की गोपनीयता के कानून और किसी की मानहानि जैसे सवालों के जवाब पाने की बाद ही स्टिंग आॅपरेशन किया जाना चाहिए। लिहाजा स्टिंग आॅपरेशन के लिए अतिरिक्त सावधानी और समझदारी की आवश्यकता होती है। 

इतिहास खंगालना-
 खोजी पत्रकारिता में कई बार किसी मामले से जुड़े पुराने पक्ष आपके समाचार के खोज मूल्य को बढ़ा देते हैं। इसमें पुराने सरकारी दस्तावेज, समाचार पत्रों में प्रकाशित पुराने समाचार, किताबें और पत्रिकाओं में प्रकाशित पुराने आलेख भी किसी विषय, व्यक्ति या घटना के अन्य पहलुओं को जानने सहित बदलाव को समझने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए एक बार एक राजनीति पार्टी के संचालक एक जिले में सदस्यों का पंजीकरण के लिए पहुंचे। इससे पहले तक वहां उनकी पार्टी के नाम पर बिना रजिस्ट्रेशन के ही कुछ लोग खुदको पार्टी का सदस्य बताते थे। जब पार्टी के नेता ने प्रेसवार्ता में रजिस्ट्रेशन से जुड़ी जानकारी दी, तब संवाददाता ने दस्तावेज दिखाते हुए सवाल किया कि जिन लोगों को सदस्य बनाया जा रहा है उनमें से अधिकांश के नाम पर पुलिस थानों में हिस्ट्रीशीट खुली हुई है। यह सुनकर पार्टी के नेता को झटका लगा और तुरन्त पूरे प्रदेश का दौरा स्थगित करते हुए अपने राज्य लौट गए। इसी प्रकार एक अन्य समाचार में सरकार ने एक फ्लाईओवर के निर्माण की घोषणा की और ठेकेदारों का चुनाव कर लिया गया। जब संवाददाता ने इससे जुड़ी पुरानी सूचनाओं को खंगालना शुरू किया तो सामने आया कि यह योजना पहले भी स्वीकृत हुई थी और ठेका मंत्री के बेटे को दिया जाना तय हुआ था। जब मीडिया में इसपर आपत्ति हुई तो पूरा प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया गया। इसके बाद नई योजना में स्वीकृत ठेकेदारों के नाम की पड़ताल की तो उसी मंत्री के बेटे के पक्ष में दोबारा टेंडर जारी होने की बात सामने आई। इसपर संवाददाता ने पुरानी खबर का हवाला देते हुए खोजी समाचार दिया और विभाग ने मामले पर जांच कमेटी निुयक्त कर टेंडर की प्रक्रिया नए सिरे से करने का आदेश दिया गया। इस प्रकार इतिहास में दर्ज खबरों का हवाला देकर असरदार खोजी खबरें तैयार की जा सकती हैं। 

प्रयोगशाला और यंत्र परीक्षण- 
खोजी पत्रकारिता में किसी फोटो, फिल्म, कम्प्यूटर, मेमोरी कार्ड, मोबाईल फोन, इंटरनेट का आईपी एडरेस, उत्पाद, वस्तु, पदार्थ, द्रव्य और दवा की अलग-अलग प्रयोगशालाओं से जांच भी सुबूत हासिल करने का एक ज़रिया होती है। उदाहरण के लिए संवाददाता को अपने सूत्र से जानकारी मिली कि एक दुकान पर खाद्य पदार्थ में नशे की मात्रा होने से उसकी बिक्री अधिक होती है, उसके बाद उस पदार्थ को बिल सहित खरीदा गया और प्रयोगशाला जांच के लिए भिजवाया गया। जांच में मादक पदार्थ का वैज्ञानिक नाम, उसका प्रतिशत और वह मादक पदार्थों की श्रेणी जैसी तमाम जानकारियों की रिपोर्ट हासिल हुई। इस खोजी समाचार प्रकाशन के बाद संबंधित विभाग ने छापा मारकर माल जब्त किया और गिरफ्तारी की। हालांकि इस प्रकार की प्रायोगिक जांच के लिए संवाददाता को धन व्यय करना पड़ता है लेकिन यदि समाचार संस्थान उसके महत्व को समझता है तो संवाददाता को व्यय की गई रकम का भुगतान करता है। लेकिन कुछ प्रयोगशाला जांच ऐसी होती हैं जिनकी सुविधा निजी प्रयोगशालाओं के पास नहीं होती। ऐसे में संवाददाता पुलिस, विश्वविद्यालय प्रयोगशाला, स्वास्थ्य विभाग और खाद्य एंव दवा जैसे विभाग की सहायता से जांच करवाकर मानक स्तर पर होने या न होने की रिपोर्ट प्राप्त करते हैं। गौरतलब है कि प्रयोगशाला जांच रिपोर्ट के आधार पर मिलावट या गड़बड़ी पाए जाने पर संबंधित के खिलाफ मामला दर्ज किया जा सकता है और रिपोर्ट के आधार पर अदालत भी संज्ञान ले सकती है। 

आॅनलाइन खोज- 
आजकल गूगल का ज़माना है ऐसे में किसी भी जानकारी को इंटरनेट के जरिए प्राप्त किया जा सकता है। आॅनलाइन पड़ताल, खोजी पत्रकारिता के लिए एक नया औज़ार है क्योंकि इससे किसी मामले या विषय का ऐतिहासिक पहलू भी जाना जा सकता है और वर्तमान स्थिति का आंकलन और निगरानी भी की जा सकती है। गूगल पर आप किस का नाम दर्ज करें तो उससे जुड़ी तमाम अपलोडेड सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं। इसके अलावा अधिकांश लोग फेसबुक, ट्विटर और वाॅट्स एप जैसे प्रचलित सामाजिक संचार मंचों का इस्तेमाल कर रहे हैं। संचार के ऐसे नए मार्ग कभी-कभी किसी व्यक्ति के व्यवहार, संबंध और उसकी मनःस्थिति जानने में सहायक होते हैं। खोजी पत्रकारिता में ऐसे आॅनलाइन मंच सूचनाओं को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उदाहरण के लिए एक प्रसिद्ध महिला की आत्महत्या का मामला सामने आने के बाद उसके ट्विटर अकाउंट में दर्ज संवाद को देखने से पता चला कि वह अपने पति के सौतेले व्यवहार से आहत थी। यही उसकी आत्महत्या का कारण भी बना। इसी प्रकार संवाददाता ने एक लापता स्कूली छात्र के फेसबुक से सूचनाएं जुटाई, जिसमें लापता होने के समय उसने क्या लिखा, कौनेसे फोटो शेयर किए और उसके दोस्त कौन-कौन हैं इसका पता चला। लापता होने से पहले उस छात्र ने मुम्बई का फोटो शेयर किया था और वह एक्टर बनना चाहता था। जब उसके खास दोस्तों से संपर्क साधा गया तो पता चला कि वह दोस्तों से पैसे उधार लेकर मुम्बई गया है। यह जानकारी पुलिस को मिलने के बाद एक सघन अभियान छेड़ा गया और उस छात्र को मुम्बई से तलाशकर लाया गया। इस प्रकार सोशल साइट्स के कई नए फीचर भी किसी व्यक्ति की पड़ताल में सहायक होते हैं जैसे कई लोग फेसबुक पर लोकेशन अपडेट करते हैं। ऐसे में कोई घटना होने पर उसकी अपडेटेड आखिरी लोकेशन पर कुछ सुराग तलाशे जा सकते हैं। 

केस स्टडीज यानि घटनाओं का संदर्भ-
 केस स्टडी का मतलब होता है किसी की आपबीती का विश्लेषण। जिसमें एक या एक से अधिक मामलों या घटनाओं का अध्ययन कर संदर्भ दिया जाता है। यह संदर्भ कई व्यक्तियों से संबंधित हो सकते हैं या उनमें घटना स्थल एक हो सकता है या फिर उसका पैटर्न एक जैसा हो सकता है। कभी-कभी समाचार पत्रों में केस स्टडीज पढ़ने को मिलती है। जैसे एक बार संवाददाता को एक इलेक्ट्राॅनिक आयटम्स के दुकानदार की शिकायत मिली कि वह कम दाम पर लेपटाॅप देने का झांसा देकर लोगों से पैसे ले लेता है और बाद में रकम वापसी का चैक थमा देता है, जो बैंक में डालने पर अनादरित हो जाता है। इस मामले की खोजबीन में संवाददाता ने उस शो-रूम के बाहर निगरानी शुरू की और गुस्से में बाहर निकलने वाले ग्राहकों को विश्वास में लेकर बातचीत करने पर दुकानदार की झांसेबाजी के कई पीडि़त मिल गए। उनकी शिकायत व सुबूतों के आधार पर चार-पांच घटनाओं को एक साथ प्रकाशित किया गया। इसके बाद तो अन्य पीडि़त भी पुलिस थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज कराने लगे। यानि एक खोजी समाचार ने लोगों को सतर्क कर दिया और चंद ही दिनों में पूरे प्रदेश के पुलिस थानों में 500 से अधिक मामले सामने आए। इसपर दुकानदार की गिरफ्तारी हुई और मामला अदालत पहुंचा फिर दुकानदार पर जुर्माना कर जेल भेजा गया। इस प्रकार केस स्टडीज यानि संदर्भ खोजी पत्रकारिता में एकाधिक मामलों या घटनाओं का अनुसंधान करने और प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन मार्ग है। 


आंकड़ा विश्लेषण- 
आम तौर पर आंकड़ा विश्लेषण शोधार्थियों के लिए ही उपयोगी माना जाता है लेकिन उपलब्ध आंकड़े या सर्वे के जरिए अर्जित किए आंकड़े भी खोजपरक पत्रकारिता के दायरे में आते हैं। उदाहरण के लिए संवाददाता ने ट्रेफिक पुलिस विभाग से वाहन चालकों के चालान के छमाही आंकड़े प्राप्त किए। आंकड़ों का विश्लेषण करने पर यह सामने आया कि मोबाइल पर बात करते हुए वाहन चलाने और ध्वनि प्रदूषण करने वाले वाहनों के चालान की संख्या शून्य थी। इसके बाद संवाददाता और कैमरामैन शहर के मुख्य चैराहे पर पहुंचे। वहां मोबाइल पर बात करते हुए वाहन चलाने की कई तस्वीरें कैमरे में कैद की। इस प्रकार आंकड़ा विश्लेषण से एक खबर की दिशा मिली। आप जानते हैं कि अक्सर चुनाव में भी मतदाताओं की राय जानने के लिए सर्वे किया जाता है। उन आंकड़ों को जोड़कर परिणाम प्राप्त किए जाते हैं और विविध प्रश्नों पर लोगों के जवाबों पर आधारिक आंकड़े को प्रतिशत में बदला जाता है। इस प्रकार यह अंदाज़ा लगता कि अधिकांश लोगों की मान्यताएं और मानसिकता क्या है। यह प्रयोग बहुत सफल होता है और इससे प्राप्त नतीजे भी बहुत सटीक होते हैं। हालांकि आंकड़ा संकलन के लिए सर्वे प्रक्रिया पर्याप्त समय, श्रम और पूंजी की मांग करती है लेकिन खोजी पत्रकारिता में इसका अपना महत्व है। 



हर समाचार का मूल मंत्र खोज है- 
खोजी पत्रकारिता को कई लोग सिर्फ अपराध से ही जोड़ देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल सभी प्रकार के समाचार में खोज की संभावना होती है। चाहे आप व्यापारिक समाचार बना रहे हों, फिल्म से जुड़े समाचार बुन रहे हों या फिर लोगों के बीच प्रचलित फैशन, ट्रेंड्स और नव परंपराओं की बात कर रहे हों। हर क्षेत्र में अन्वेषण यानि खोज ही पत्रकारिता और समाचार को अधिक सार्थक और विश्वसनीय बनाती है। उदाहरण के लिए संवाददाता को एक डाॅक्टर ने बताया कि कई गर्भवती महिलाएं प्राकृतिक रूप से बच्चा पैदा करने के बजाए आॅपरेशन करवा रहीं हैं। इस बात की पड़ताल करने पर सामने आया कि कई महिलाएं तो प्रसव पीड़ा से गुज़रना नहीं चाहतीं इसीलिए प्राकृतिक प्रक्रिया से बच्चे को जन्म देने के बजाए आॅपरेशन करा रही हैं। दूसरा तथ्य यह उजागर हुआ कि कुछ गर्भवती महिलाए ज्योतिष परामर्श लेकर एक निश्चित तारीख को शुभ मानते हुए आॅपरेशन से डिलीवरी करवा रही हैं। इस प्रकार की घटनाओं या प्रवृत्ति को अपराध के दायरे में नहीं रखा जा सकता लेकिन इसमें बदलाव को खोजकर समाचारों में रेखांकित किया जाता है। इसीलिए यह भी खोजी पत्रकारिता ही है। 

- डाॅ सचिन बत्रा
असोसिएट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट आॅफ माॅस कम्युनिकेशन,
शारदा विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा
9540166933
This article is published in the prestigious website of Media Professional & Academicians 
http://www.newswriters.in/2015/06/04/investigative-journalism/ 
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लेखक परिचय- डाॅ सचिन बत्रा जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में एमए और यूनिवर्सिटी टाॅपर हैं। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में पीएच-डी की है, साथ ही फ्रेंच में डिप्लोमा भी प्राप्त किया है। उन्होंने आरडब्लूजेयू और इंटरनेश्नल इंस्टीट्यूट आॅफ जर्नलिज्म, ब्रेडनबर्ग, बर्लिन के विशेषज्ञ से पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया है। वे दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और दैनिक नवज्योति जैसे समाचार पत्रों में विभिन्न पदों पर काम कर चुके हैं और उन्होंने राजस्थान पत्रिका की अनुसंधान व खोजी पत्रिका नैनो में भी अपनी सेवाएं दी हैं। इसके अलावा वे सहारा समय के जोधपुर केंद्र में ब्यूरो इनचार्ज भी रहे हैं। इस दौरान उनकी कई खोजपूर्ण खबरें प्रकाशित और प्रसारित हुई जिनमें सलमान खान का हिरण शिकार मामला भी शामिल है। उन्होंने एक तांत्रिका का स्टिंग आॅपरेशन भी किया था। डाॅ सचिन ने एक किताब और कई शोध पत्र लिखे हैं, इसके अलावा वे अमेरिका की प्रोफेश्नल सोसाइटी आॅफ ड्रोन जर्नलिस्टस के सदस्य हैं। सचिन गृह मंत्रालय के नेशलन इंस्टीट्यूट आॅफ डिज़ास्टर मैनेजमेंट में पब्लिक इंफार्मेशन आॅफिसर्स के प्रशिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध हैं। उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में 14 वर्ष काम किया और पिछले 5 वर्षो से मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।